मैंने नागराज पोपटराव मंजुले की फिल्म ‘सैराट’ देखी है और इस बात से अच्छे से वाकिफ हूँ कि नागराज अपनी फिल्मों में वास्तविकता को बेहद करीब से देखने और लाने की कोशिश करते हैं। उनकी फिल्मों में हीरो किसी लग्जीरियस बाइक पर या एक्शन करते हुए एंट्री नहीं लेता है, बल्कि वह किसी गली-मोहल्ले, चॉल के किसी कोने से निकल कर, दबा कुचला सा आदमी भी हो सकता है, जिसने बालों को नहीं संवारा हो, जिसके आस-पास गंदी बहती नालियां हों, फटे-बिखरे कपड़ें हों, दरअसल नागराज की दुनिया का हीरो चमचमाती दुनिया में भारी-भरकम संवाद बोलने वाला हीरो नहीं होता, बाकि रफ लैंग्वेज में सच्ची बातें करने वाला और जिंदगी की सच्चाई को दर्शाने और रिप्रेजेंट करने वाला नायक होता है। नागराज का फिर से वहीं अंदाज़ उनकी नयी फिल्म झुंड में दिखा है, जिसमें उन्होंने अमिताभ बच्चन जैसे सदी के महानायक के होते हुए भी, कहानी को महानायक बना दिया है।  यह नागराज की कहानी की ही खासियत रही होगी कि अमिताभ बच्चन ने भी इस कहानी को हां कहते हुए देर नहीं लगायी। परफेक्शनिस्ट आमिर खान का मैंने अभी थोड़ी देर पहले, इस रिव्यू को लिखने से पहले वीडियो देखा, जिसमें वह झुंड की तारीफ़ करते हुए, रो पड़े, दरअसल,झुंड के माध्यम से नागराज किसी की बायोपिक फिल्म या कोई स्पोर्ट्स फिल्म लेकर नहीं आये हैं, बल्कि वह एक ऐसे भारत की बात करने आये हैं, जो ठीक हमारी बड़ी-बड़ी इमारतों के पीछे, झोपड़ पट्टी में बसा हुआ है, जहाँ टैलेंट तो है, लेकिन उन्हें सँवारने और निखारने वाला कोई नहीं है।’झुंड को सिर्फ एक स्पोर्ट्स फिल्म का दर्जा न देकर, इसे एक बड़े प्रॉस्पेक्ट के साथ देखा जाना चाहिए, क्योंकि इस फिल्म में नागराज ने ऐसे वर्ग विभाजन की बात की है और उनकी जिंदगी के संघर्ष को बेहद रियलियलिस्टिक अप्रोच के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश की है, जो हकीकत के बेहद करीब है। इस कहानी में वैनिटी नहीं है, मेकअप नहीं है, यह कहानी झोपड़पट्टी में रह रहे तमाम युवाओं की सपनों की कबाड़खाने की कहानी है, जिनको सपने देखने का भी हक़ नहीं है, ऐसे में कोई उम्मीद की किरण लेकर आता है, तब भी क्या संघर्ष से जूझना पड़ता है। अमिताभ बच्चन की ‘झुण्ड ‘की कहानी काफी कुछ बयां करती है।

क्या है कहानी

फिल्म की कहानी रियल कहानी से प्रेरित है। कहानी विजय बोराडे ( अमिताभ बच्चन )की है, जिन्होंने झोपड़पट्टी के बच्चों को उसी नजर से नहीं देखा, जैसी पूरी दुनिया देखती है। उन्हें उस झोपड़पट्टी में कबाड़खाना नहीं, गंदगी नहीं, बल्कि टैलेंट नजर आया। एक दिन यूं ही घूमते-फिरते, जब विजय जो कि एक स्पोर्ट्स टीचर भी हैं, अपने घर के पीछे की झोपड़पट्टी में जाते हैं और वहां बारिश में युवाओं और बच्चों को टीना से फुटबॉल खेलते देखते हैं। ऐसे में विजय एक असली फुटबॉल लेकर आते हैं और बच्चों को शुरुआत में पैसों का लालच देकर खेलने को कहते हैं। बच्चों को इसकी लत लग जाती है, फिर धीरे-धीरे विजय उन्हें अपने ही स्कूल के बच्चों के साथ फुटबॉल मैच खेलने के लिए प्रेरित करते हैं। विजय उन पारदर्शी लोगों में से एक होते हैं, जिन्हें स्लम के बच्चों से कोई घृणा नहीं आती है, वह उन्हें एक नजर से देखते हैं। ऐसे में स्लम के बच्चे, जो जुआ, दारू, शराब और बाकी और गैर कानूनी चीजों में उलझे हुए थे, धीरे-धीरे ही सही उनकी जिंदगी ट्रैक पर आ रही होती है कि इन सबके बीच एक युवा डॉन जो कि पहले काफी लफड़े कर चुका होता है, वह मारपीट में फंसता जाता है, उस पर पुलिस केस बन जाता है। इसी बीच स्लम के बच्चों का पहले नेशनल लेवल फुटबॉल प्रतियोगिता होती है और फिर यह विगुल वर्ल्ड कप तक भी पहुंच जाता है। इस मैच के दौरान पूरे देश भर के स्लम से बच्चे आते हैं और उनके साथ ही हम पूरे भारत की तस्वीर देख पाते हैं कि यह एक ऐसे भारत की तस्वीर होती है, जिसे देखना हम पसंद नहीं करते, या उधर देखना ही नहीं चाहते हैं। क्या इन बच्चों को वह सम्मान हासिल हो पाता है, जिसके हक़दार वह भी हैं, लेकिन तक़दीर और लोग उन्हें बदलने और सुधरने का मौका नहीं दे पाते हैं। यह जानने के लिए फिल्म देखना चाहिए। फिल्म में विजय के सहयोगी टीचर बार-बार उनकी स्लम टीम को झुण्ड बुलाते हैं, दरअसल, एक भारत इस दूसरे भारत को उसी हेय की दृष्टि से देखता है, झुण्ड और भीड़ की नजर से ही देखता है। निर्देशक ने अच्छे मेटाफर के रूप में उन तमाम लोगों की मानसिकता पर वार किया है।  रियल कलाकारों के साथ एक रियल कहानी कहने की नागराज की कोशिश कामयाब लगी मुझे।

यहाँ देखें आमिर खान का रिएक्शन फिल्म देखने के बाद

बातें जो मुझे अच्छी लगीं

  • नागराज ने इस कहानी में कोई दिखावा या बनावटीपन रखने की कोशिश नहीं की है। यह कहानी सिर्फ एक स्पोर्ट्स ड्रामा नहीं, बल्कि उस समाज की कहानी बयां करता है, जहाँ काफी युवाओं के सपने कबाड़ में उजड़ रहे हैं, एक ऐसे भारत की कहानी दिखाई है निर्देशक ने, जहाँ युवाओं को हर दिन जिंदगी जीने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, दो वक़्त की रोटी, अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है।
  • अमिताभ बच्चन का फिल्म में एक मोनोलोग है, जो कि कोर्ट में फिल्माया गया है, जहाँ अमिताभ के किरदार विजय बताते हैं कि इस भारत के बारे में बात कोई नहीं करता है। यह इमोशनल दृश्य फिल्म का पूरा सार बताता है।
  • निर्देशक ने फिल्म में बहुत ही शानदार म्यूजिक का इस्तेमाल किया है, जो कहानी के मूड के हिसाब से खास है।
  • फिल्म की कहानी में कोई नयापन भले न हो, है यह अंडर डॉग लोगों के ही सामने आने की कहानी, लेकिन फिल्म का नैरेटिव इतना दिलचस्प है कि आप इस कहानी में एंगेज होते जायेंगे। कहानी का अंदाज ए बयां आपको कहानी से जोड़ता हुआ जाएगा और तीन घंटे मेरे फिल्म देखते हुए कब निकले, पता नहीं चला।
  • कहानी में कोई इमोशनल या मेलो ड्रामा क्रिएट करने की कोशिश नहीं है।
  • फिल्म के आखिरी शॉट में जब हवाई जहाज का एक सीन दिखाया जाता है, वहां ऊंचाई से एक वाइड शॉट में नीचे की दूर-दूर तक फैली झुग्गी-झोपड़ी नजर आती है, जो असली भारत का एक चेहरा दिखाती है।
  • फिल्म का रियलिस्टिक लोकेशन और कलाकार भी कहानी को और ऑथेंटिक बना देते हैं।
  • स्लम व हाशिये के नीचे के इन लोगों को अपने पहचान पत्र के लिए भी किस तरह का संघर्ष करना पड़ता है, यह देखना भी इस फिल्म में लाजिमी है।
  • फिल्म में सामाजिक मुद्दे को बेहतर तरीके से उठाया गया है। जातिवाद, छुआछूत और ऐसे कई मुद्दों पर बात की गई है।
  • एक दृश्य में स्लम के सारे बच्चे एक-एक कर, अपनी कहानी बयां कर रहे होते हैं, अपनी दास्ताँ और अपने परिवार की कहानी बता रहे होते हैं, यह दृश्य काफी मार्मिक है। एक ही दृश्य में जैसे निर्देशक ने पूरे भारत के इस तबके के लोगों की वास्तविकता को प्रस्तुत कर दिया है। किरदारों का परिवेश, मेकअप, लुक,परिधान एकदम कहानी के मुताबिक सच्चा है।
  • फिल्म में काफी सटायर हैं, जैसे दीवारों पर डिजिटल इण्डिया के पोस्टर हैं और दूसरी तरफ एक तबका जहाँ अब भी खाने को कुछ नहीं लोगों के पास ।

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अभिनय

इस फिल्म में अमिताभ बच्चन से जिस सादगी से अपने किरदार को निभाया है और सादगी दी है, इसके बावजूद जो उनके किरदार में करिश्मा दिखता है, ऐसा करिश्मा तो सिर्फ अमिताभ ही दिखा सकते थे। अमिताभ न सिर्फ इस कहानी की जान हैं, बल्कि उनका इस फिल्म में होना इस कहानी को काफी लोगों तक पहुँचाने की भी एक जिम्मेदारी बन जाती है और साथ ही यह कहानी की विश्वसनीयता भी बरक़रार कर देती है। फिल्म में कई रियल लोगों को शामिल किया गया है, ऐसे में चीयर लीडर बने बुजुर्ग का किरदार, छोटे बच्चे का किरदार और बाकी शेष कलाकारों ने भी कहानी को दमदार बना दिया है।

मैं तो हर सिने प्रेमियों से कहूँगी कि उन्हें  फिल्म ‘झुंड’ देखनी चाहिए और एक बार इसे देखते हुए एक दूसरे भारत की वास्तविक तस्वीर के बारे में भी विचार करना चाहिए, ताकि अगली बार जब स्लम के बच्चे या कोई इंसान सामने आये तो हम उनसे इंसानियत दिखाते हुए नजर आएं, आँखें चुराते हुए या उन पर गुर्राते हुए नजर न आएं।

फिल्म : झुंड

कलाकार : अमिताभ बच्चन, रिंकू राजगुरु और उनकी झुंड

निर्देशक : नागराज पोपटराव मंजुले

मेरी रेटिंग 5 में से 3. 5 स्टार